मजबूरियाँ, मुसीबते,आँसू..... इनसे है आजकल हमारी यारी,
गले तक तो डूब गये है,और कितना डुबायेगी ये समझदारी...
सही क्या,गलत क्या,हम करते रहे दोनों की तरफदारी,
दोनों को जिताने में,खुदको हार गए,ये हार पड़ी भारी...
ये नजर का धोखा था,या जमाने की चलाखी,
सोने के भाव मिट्टी खरीदी,थी ही नही मुझमें फितरत बाजारी...
मोल पूछने जब-जब गये रिश्तों का, खुद ही बिक आये
गिला औरों से क्या करे,मुझमें ही न थी होशियारी....!!!
गले तक तो डूब गये है,और कितना डुबायेगी ये समझदारी...
सही क्या,गलत क्या,हम करते रहे दोनों की तरफदारी,
दोनों को जिताने में,खुदको हार गए,ये हार पड़ी भारी...
ये नजर का धोखा था,या जमाने की चलाखी,
सोने के भाव मिट्टी खरीदी,थी ही नही मुझमें फितरत बाजारी...
मोल पूछने जब-जब गये रिश्तों का, खुद ही बिक आये
गिला औरों से क्या करे,मुझमें ही न थी होशियारी....!!!
5 comments:
Nice mavshi 👌👌
Nice poem. सुंदर .
छान
Welldone!!! Bahot hi sundar panktiya.
Nice line .. .
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