Monday 21 January 2019

जमाने की चलाखी

मजबूरियाँ, मुसीबते,आँसू..... इनसे है आजकल हमारी यारी,
गले तक तो डूब गये है,और कितना डुबायेगी ये समझदारी...

सही क्या,गलत क्या,हम करते रहे दोनों की तरफदारी,
दोनों को जिताने में,खुदको हार गए,ये हार पड़ी भारी...

ये नजर का धोखा था,या जमाने की चलाखी,
सोने के भाव मिट्टी खरीदी,थी ही नही मुझमें फितरत बाजारी...

मोल पूछने जब-जब गये रिश्तों का, खुद ही बिक आये
गिला औरों से क्या करे,मुझमें ही न थी होशियारी....!!!

5 comments:

Unknown said...

Nice mavshi 👌👌

Unknown said...

Nice poem. सुंदर .

Unknown said...

छान

S.v. killedar. said...

Welldone!!! Bahot hi sundar panktiya.

Unknown said...

Nice line .. .

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