Thursday 27 December 2018

कुछ दिनों से.....

कुछ दिनों से,एक दूरी सी बन गयी है.....
मुझमे और जमाने मे...
न जाने ये कौनसी लकीर है...
किसने खींची,
 कब खींची....
और क्यों.....
जमाने के साथ तो हूँ
पर,
फिर भी.....
अंजनासा सफर लगता है
ये साथ....
रेल की उन दो पटरियों की तरह है
जो साथ-साथ चलती है
फिरभी साथ नही होती....
मैं भी
सबके साथ हूँ
हर पल.....
हर लम्हा....
पर अजनबी की तरह.....
ये जहाँ...
मेरा है भी और नही भी....
कुछ कुछ मेरा लगता है
तो कभी कुछ पराया
कुछ साँये संभाले तो है
पर वो भी.....
चुभते है....
रिश्तों के बिखरे टूटे शीशे
चुभते है तो,
अब दर्द भी नहीं होता
नाही खून निकलता है
बस....
दिल मे कुछ हलचल होती है....
यादोंके  कुछ पत्ते
दिल की जमीं पर बिखरते है....
मैं सिमटती हुँ.......
एक एक पत्ता
और.....
फिर चल पड़ती हुँ.....

गोड गोजिरं बालपण

गोड गोजिरं एक बालपण.... पावसाच्या सरीनी भिजलेलं... स्वप्न ठेऊन होडिमधे.... त्याच्यापाठी वाहणारे..... त्याला काळजी फक्त त्या होडीची, चि...